दंश - सामाजिक घटनाओं पर आधारित प्रेरणात्मक उपन्यास


परमजीत उच्च शिक्षा ग्रहण करने पंजाब से पूना आता है. यहां उसकी भेंट लता मैडम से होती है. लता मैडम भी पंजाब से ही थीं, इसलिए दोनों में घनिष्ठता बढ़ती जाती है. लता मैडम की छोटी बहन नंदिनी आंशिक रूप से लकवाग्रस्त होती है जिसे नियमित रूप से थैरपी सेंटर ले जाना पड़ता था. इसलिए लता मैडम परमजीत से अनुरोध करती हैं कि वह नंदिनी को थैरपी सेंटर ले जाया करे.
 
जब परमजीत नंदिनी को थैरपी सेंटर ले जाना शुरू करता है तो नंदिनी एक घर के सामने टैक्सी रुकवाकर बहुत देर तक उस घर की तरफ देखती रहती और कभी हंसती, कभी रोती तो कभी भावुक हो जाती थी. फिर उस घर से कुछ दूर एक खण्डहर हो चुके मकान के सामने भी रूकती और उसे देखती रहती. कई दिनों तक यही क्रम चलता रहा. 
धीरे-धीरे परमजीत को यह आभास होने लगता है कि नंदिनी के जीवन में अवश्य ही कोई अप्रिय घटना घटी है जिसके फलस्वरूप नंदिनी की आज यह अवस्था है. यही नंदिनी के जीवन का सबसे बड़ा दंश है. 
परमजीत ठान लेता है कि वह नंदिनी के जीवन के पूर्व इतिहास का पता लगाएगा और नंदिनी के जीवन को संवारने का प्रयास करेगा.

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1
कुछ ही दिनों में वहां मेरा मन लग गया। पढ़ाई के साथ नौकरी भी आराम से कर रहा था। जिस कपड़े के शोरूम में मैं काम कर रहा था उसमें काम करते हुए मुझे तीन महिने हो चुके थे और तीन महिने कब बीत गये पता ही नहीं चला। उन तीन महिनों में मैंने अपनी योग्यता दिखाकर सबका दिल जीत लिया था। जो कर्मचारी मुझसे सीनियर थे वे भी मुझे सम्मान देते थे। सेठ साहब तो कभी-कभी मुझे गल्ला सम्भालने का काम भी दे देते थे। इतना विश्वास वे मुझ पर करने लगे थे।
जब कभी मैं गल्ले पर बैठता था तो कुछ लोगों की मुझ पर बहुत नज़र रहती थी। जैसे कि उसी शोरूम के बाहर एक चाय की दुकान थी। उस चाय की दुकान पर चार-पांच लड़के चाय पीने आते थे। उनकी हरकतों से ऐसा लगता था जैसे वे लोग मुझ पर नज़र रख रहे हों। जब भी मैं उस चाय की दुकान पर चाय पीने जाता था तो वे एक-दूसरे को इशारा करते हुए मुझे देखते रहते थे। उन लोगों के इस व्यवहार के कारण मुझे उन लोगों पर शंका होने लगी थी।
वे चारो-पांचों लड़के पच्चीस से तीस वर्ष की उम्र के थे, परन्तु पढ़े-लिखे बिल्कुल नहीं लगते थे और बन-ठन कर रहते थे। अब मुझे उनसे डर भी लगने लगा था। उनमें महेश नाम का जो एक लड़का था वह मेरे साथ बात करने का भी प्रयास करता था। वे सब मेरा नाम भी जानते थे।
अधिकतर उनका चाय की दुकान पर आना शाम के छह बजे होता था और उसी समय मैं भी चाय पीने के लिए उसी दुकान पर जाता था।
एक दिन वे चारों-पाचों लड़के चाय की दुकान पर कप हाथ में लेकर चाय की चुस्कियां लेते हुए आपस में बातचीत कर रहे थे कि मैं वहां पहुंच गया। वे एकटक मेरी तरफ़ देखने लगे।
मैंने चाय वाले से कहा—“एक चाय देना।”
चाय वाले ने गर्दन से ईशारा किया “दे रहा हूं।” और मैं इधर-उधर देखता हुआ खड़ा रहा। तभी उन लड़कों में से एक ने कहा—“कैसे हो परमजीत?” मैंने उसकी तरफ़ देखा। वह महेश था। आगे बोला—“काम धंधा ठीक चल रहा है न परमजीत?”
मैंने कहा—“बहुत बढ़िया।”
कहने लगा—“बहुत बढ़िया मत कहो यार ! टाइम पास हो रहा है, यह कहो।”
मैंने कहा—“यह भी कह सकते हो।”
इतने में चाय वाले का कर्मचारी मेरे लिये एक कप चाय लाकर मुझे देने लगा। मैंने चाय का कप अपने हाथ में पकड़ा और पीने लगा। इसके साथ-साथ वे चारों-पांचों लड़के मुझसे क्रमानुसार बातचीत करने लगे। किसी ने मेरा गांव पूछा, किसी ने मेरा पूना आने का कारण पूछा, आदि-आदि। पर एक ने तो कह दिया—“अरे यार ! तुम छोड़ दो इस नौकरी को। हमारे साथ जुड़ जाओ। तुम्हारी ज़िन्दगी बन जायेगी।” मैं उनकी हर बात समझ रहा था पर वे मुझसे क्या चाहते हैं, यह मेरी समझ में नहीं आ रहा था।
मैंने कहा—“भाई जहां मैं नौकरी कर रहा हूं, यह काम भी आसानी से मिल सकता है क्या?”
उनमें से रमन नाम का लड़का बोला—“यह तो तुम ठीक कह रहे हो, पर हमारे पास तुम्हारे लिये इससे भी बढ़िया काम है। तुम हिन्दी बहुत अच्छी बोल लेते हो और तुम्हारे शरीर की कद-काठी भी बहुत अच्छी है। हमें तो तुम्हारे जैसे ही लड़के की तलाश थी।”
हमारा वार्तालाप जारी था, इतने में ही दुकान से लड़का आया और बोला—“परमजीत जल्दी चलो, सेठजी बुला रहे हैं।” मैंने चाय का कप वहीं बेंच पर रखकर चाय के पैसे दिये तथा शोरूम की तरफ जाने लगा।
उन्हीं लड़कों में से सुरेश नाम का लड़का बोला—“हमारी बातों पर आपने ध्यान नहीं दिया परमजीत।”
मैंने कहा—“हां-हां देखेंगे।” यह कहकर मैंने घबराते हुए शोरूम में प्रवेश किया। उस समय शोरुम में एक पंजाबी परिवार कपड़े खरीदने आया था। इसलिये सेठजी ने मुझे बुलाया था। यह जानकर मेरी घबराहट कुछ कम हुई।
चार-पांच दिनों के बाद फिर एक बार उन लड़कों ने मुझे घेर कर मुझसे बातचीत करनी चाही। वे मुझे अपने साथ जोड़कर अपना काम बांटना चाहते थे पर काम क्या है यह उन्होंने तब तक नहीं बताया था और न ही मुझे पता चला था। उनकी बातों से मुझे वे ईमानदार व शरीफ तो नहीं लग रहे थे और मैं उनके साथ काम करुं यह मैं सोच भी नहीं सकता था, परन्तु वे मुझे बार-बार प्रलोभन दे रहे थे और मेरे साथ सहानुभूति भी दिखा रहे थे।
2
वे लोग मुझसे क्या चाहते हैं यह कल्पना करना असंभव था। मैंने चाय वाले से कहा—“क्या आप मेरा एक काम करोगे?”
कहने लगे—“बोलो।”
मैंने कहा—“वे लोग मेरे प्रति क्या भावना रखते हैं, इसका पता करना है। क्या आप पता कर सकते हो?”
चाय वाला बोला—“तुम्हारे बारे में वे क्या सोच रहे हैं, इसकी जानकारी मुझे बहुत दिनों पहले ही लग चुकी है।”
मैंने आश्चर्य से पूछा—“अच्छा! क्या चाहते हैं वे लोग मुझसे?”
चाय वाला बोला—“तुम्हारे बारे में वे अच्छा सोच रहे हैं पर तुम उन लोगों के बीच में मत पड़ना।”
मैंने पूछा—“ऐसा क्यों लालाजी?”
बोले—“भाई तुम शरीफ और परदेसी लड़के हो। इनके साथ रहकर तुम भी शराफत भूल जाओगे।”
मैंने कहा—“धन्यवाद लालाजी!” यह कहकर मैंने लाला का आभार व्यक्त किया।
उन लड़कों से मेरी एक-दो दिनों के अंतराल पर भेंट होती रहती थी। उनमें से एक लड़का मुझे शरीफ लगता था। उसका नाम सुरेश था। उससे मेरी दोस्ती बढ़ने लगी। उसने मुझे सारी जानकारी दे दी। वे लोग न तो बदमाश थे न ही बेकार थे। परन्तु जैसा आदमी मिला, वे उससे उसी हिसाब से बात करते थे। मुझे वे अपने साथ इसलिये जोड़ना चाहते थे कि मैं उनके साथ जुड़कर उनके व्यापार में विस्तार करूं।
उनमें एक लड़का था ‘सूरज’। वह सब लड़कों का बॉस था। उसने तीन लड़के वेतन पर रखे हुए थे। तीन लाख रुपये दस प्रतिशत ब्याज पर कारखानों के मज़दूरों को दे रखे थे।
एक दिन सूरज भाई ने मुझे पकड़ लिया। मेरे कंधे पर हाथ रख कर मुझसे बात करने लगे। मेरे जीवन की सारी जानकारी उन्होंने ले ली। सप्ताह में दो दिन अपने साथ काम करने का अनुरोध किया और मैंने स्वीकार भी कर लिया। दो दिन अर्थात् शनिवार और रविवार।
मैं लगातार दो महिने तक उनके साथ काम करता रहा। सूरज भाई और उनके तीन साथियों को मैंने अच्छी तरह से समझ लिया था।
वे चारों ही शरीफ थे, पर धंधा ऐसा था की गन्दी गाली देना, तू-तड़ाक बोलना और समय आने पर थप्पड़ मारना यह सब होता था। दो महिने में उन्होंने मुझे बत्तीस ग्राहक दे दिये जो उनके पुराने ग्राहक थे। उनमें से चार-पांच पंजाबी व आठ-दस उत्तर प्रदेश व बिहार से थे।
3
सूरज, महेश, रमन और सुरेश चारों ही मेरे अच्छे मित्र बन गये थे। उन चारों से मेरा मन लग गया था। वे चारों मेरा बहुत सम्मान करते थे। आरम्भ में मैं जैसे उन्हें बदमाश-आवारा समझ रहा था, वे वैसे नहीं थे। उनका रहन-सहन, हाव-भाव व बोलचाल बदमाशों जैसा था। किन्तु स्वभाव से बहुत अच्छे थे। सूरज भाई को मैं ‘सूरज भाई’ कहकर सम्बोधित करता था क्योंकि वह हम सबके बॉस भी थे और आयु में भी हम सबसे 5-6 वर्ष बड़े थे।
उनके वार्तालाप में एक बात मुझे रहस्यमय लगती थी-‘दो बटा साठ’। उन सबके मुंह से ‘दो बटा साठ’ सुनकर मुझे एक विचित्र आभास होता था। मैंने उन चारों से कई बार पूछा भी कि यह ‘दो बटा-साठ’ क्या है? पर सभी ने इसे हंस कर टाल दिया। सूरज भाई से जब मैंने पूछा तो वह भी कहने लगे—“छोड़ो यार परमजीत, तुम जानकर क्या करोगे?”
लेकिन मैं इस रहस्य को अवश्य जानना चाहता था और इसी जिज्ञासा के कारण मैं असमंजस में था।
एक दिन जब मैं शोरूम से आपने कमरे पर जाने के लिए निकला तो किसी ने पीछे से मेरे कन्धे पर हाथ रखा। वह सूरज भाई थे, मैंने आश्चर्य से देखकर उनसे पूछा—“हां जी भाई साहब, इस समय यहां कैसे?”
सूरज भाई बोले—“चलो पहले चाय पीते हैं, फिर हमें एक जगह जाना है। उसके बाद मैं तुम्हें तुम्हारे कमरे पर छोड़ दूंगा।”
हम चाय की दुकान पर गये, वहीं पर सूरज भाई ने अपना स्कूटर खड़ा कर रखा था। चाय का ऑर्डर देकर स्कूटर की डिक्की खोलकर उसमें से नोटों की गड्डियां निकालकर लाए और हम दोनों नोटों की गिनती करने लगे। हम दोनों नोटों की गिनती कर रहे थे और राह चलते लोग हमें देखते हुए जा रहे थे, पर सूरज भाई को कोई डर नहीं था। बीस हज़ार रुपये थे। यह बात सन् 1978 की है। 1978 में बीस हज़ार रुपये बहुत होते थे।
हमने चाय पी और फिर स्कूटर पर बैठकर जाने लगे। चार-पांच किलोमीटर चलने के बाद एक पॉश कॉलोनी आ गई। उस कॉलोनी में एक सुन्दर सी कोठी के सामने सूरज भाई ने स्कूटर खड़ा कर दिया। मुझसे कहने लगे- ‘‘तुम यहीं पर ठहरो। मैं रुपये देकर आता हूं। उन्होंने डिक्की में से नोटों की गड्डियां निकालीं और रूमाल में लपेट कर अंदर ले गए।
मैं प्रतीक्षा करते हुए गेट के बाहर खड़ा रहा। अचानक मेरी नज़र उस कोठी के नंबर पर पड़ी। लिखा था-'दो बटा साठ’ (2/60)। मैं चौंक गया। सूरज भाई व उनके अन्य साथी कई बार इसी कोठी के विषय में बातचीत करते थे। मैं गौर से उस कोठी के चारों तरफ देखने लगा। उसमें रहने वाले कुलीन परिवार के सदस्य थे। कोठी का रंग-रूप एवं नक्शा बहुत सुंदर था। सूरज भाई जैसे धनी लोग ही उस कोठी में प्रवेश कर सकते हैं, यह मेरा अनुमान था।
इसलिए सूरज भाई इस कोठी में मुझे नहीं भेजते थे। उनके साथ चार महीने काम करने के बाद आज पहली बार इस कोठी के दर्शन करने को मिले।
पच्चीस मिनट के बाद सूरज भाई लौट आए। पर उनके चेहरे पर रौनक नहीं थी। वह मायूस नज़र आ रहे थे। न ही वह कुछ बोल पा रहे थे और न ही वह कुशलता से आगे बढ़ रहे थे। मैं उनसे कोई प्रश्न करूं इससे पहले ही वह स्वयं बताने लगे।
बोले—“आज तो नुकसान हो गया परमजीत! सोचा भी नहीं था कि ऐसा नुकसान होगा।”
“क्या हो गया भाई साहब?”- मैंने पूछा।
आगे वह कहने लगे—“बीस हज़ार रुपये देकर मैंने उनसे एक लाख रुपये की डिमाण्ड की। उन्होंने मना कर दिया। लता मैडम बोलीं कि पहले आपकी तरफ जो दो लाख रुपये हैं उसे जमा कर दो। उसके बाद नया खाता खोल लिया जायेगा।”
मैं कुछ सोचकर सूरज भाई से कहने लगा—“कोई बात नहीं भाई, एक घर में मना कर दिया तो बाकी के घर के दरवाज़े तो खुले हैं। आप तो कहीं से भी प्रबन्ध कर सकते हो।”
वे बोले—“नहीं परमजीत! ऐसा नहीं है। इसी घर से हमने व्यापार सीखा है और इसी घर के सहारे मैंने लाखों रुपये कमाए हैं।”
मैंने कहा—“मैं कुछ समझा नहीं सूरज भाई।”
कहने लगे—“तुम्हें समझाने में बहुत समय लगेगा परमजीत। समय के साथ सब समझ जाओगे।”
मैं अधिक पूछताछ नहीं कर सकता था। जो वह बताते जा रहे थे, उतना ही मैं सुन सकता था। सूरज भाई का उदास होने का कारण उनकी निजी समस्या थी। हम दोनों स्कूटर पर बैठे और अपने घर जाने लगे। वे मुझे कमरे पर छोड़कर चले गये। अब महिने में दो बार सूरज भाई मुझे दो बटा साठ में रुपयों की किश्त लेकर भेजते थे। कभी-कभी वह मुझे अपने स्कूटर पर बिठाकर ले जाते थे और वह कुछ दूरी पर खड़े रहते थे। जब मैं किश्त देकर आता था तो वे मुझसे उस घर की एक-एक बात पूछते थे। मुझसे पूछताछ करके जो कुछ वह सुनते थे उस पर वह बहुत देर तक चिंतन करते थे।
जिसे सूरज भाई लता मैडम बोलते थे, उस महिला की उम्र भी सूरज भाई की उम्र के बराबर ही थी और उस घर में मैं जितनी बार भी गया, उतनी बार वही महिला मुझे मिली। परन्तु उन्होंने मुझे घर के भीतर कभी प्रवेश नहीं दिया।
4
मैं घर के आंगन का फाटक खोल कर घर के मेन गेट तक जाता था, घंटी बजाता था, दो मिनट में वह महिला आती थी और पैसे लेकर मेरी डायरी में हस्ताक्षर करती थीं। वह तब तक गेट पर खड़ी रहती थीं जब तक मैं आंगन पार करके फाटक के बाहर नहीं चला जाता था। तीन-चार बार ऐसा ही हुआ।
एक दिन मैं रात के समय वहां गया। उस समय रात्रि के आठ बज रहे थे और बारिश भी बहुत हो रही थी। मैं पूरी तरह भीग चुका था। फाटक खोलकर जैसे ही मैं आंगन में प्रवेश करने लगा तो मेरी नज़र पहली मंज़िल की खिड़की पर पड़ी। लाईट जल रही थी और एक सुन्दर लड़की खिड़की में खड़ी होकर बाहर होने वाली बारिश का आनंद ले रही थी। सम्भवतः उस लड़की ने जैसे ही मुझे गेट से आते हुए देखा तो उसने कमरे की बत्ती बुझा दी। उजाले में जो उसकी सुंदरता दिखाई दे रही थी, बत्ती बुझते ही उसकी सुंदरता अंधेरे में लुप्त हो गई।
मैं कोठी के दरवाज़े के पास जाकर खड़ा हो गया और बेल बजाकर छज्जे के नीचे खड़ा होकर अपने बदन का पानी हाथ से साफ करने लगा। पल दो पल में ही भीतर से महिला ने दरवाज़ा खोला। मैंने उनको पैसे, डायरी व पेन दिया और वह रकम गिनकर डायरी में लिखने लगीं। 

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